Friday 13 February 2015

                         अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरी तरह से माँ-बहन हो गया।  #PK जैसी फिल्मों से (जो बस ये दिखाती  है कि  मंदिरों पर दूध या पैसे चढाने से बेहतर है उसको किसी ज़रूरतमंद को दे दे) अगर सामजिक भावना या पाखंडी धर्म-ढोलों के ताल आहत होती है तो ऐसी स्वतंत्रता पराधीनता से गाढ़ी है। ऐसा क्या दिखाया इसमें जो इतना बवाल मचा है! यही बात रंगरसिया या ओह!माय गॉड के वक़्त क्यों नही था? सबसे बड़ी बात ये कि  अधिकतर लोग एक ही पोस्ट को ctrl +c और ctrl +v  कर रहे हैं।  बाद में ऐसे मेहरबान,धार्मिक, और समझदार दर्शक कहते हैं के "मौलिक फिल्मे नही बन रही. " अरे! क्यों कोई बनाए ? "ब्लैक फ्राइडे" बेनड , "1947 earth"  बेनड।
ऐसे में एक ही बात आती है मन में
                       अंधों की नज़रें हैं यहाँ,
                       बस! अँधा मत कहना।
                      दिखना नही कुछ इनको,
                       बस! बहरा मत होना।
                      जवान कोई हक़ नही रखता यहाँ ,
                     इन बेअक्कल बूढ़ों को
                         बस! बेअक्कल, बूढ़ा  मत कहना।
                   

                     कृपया #PK को अपना साथ दें , वरना फिर से वही बकवास देखते रहेंगे।  और फिर मौलिकता की शिकायत का हक़ भी नही रहेगा।
                                                                                      ---- अविनाश 

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